कश्मीर की मजहबी पहचान आज इस्लाम तक सिमटी हुई है लेकिन हमेशा से ऐसा नहीं था। कश्मीर हिंदुओं के शैव मत, बौद्ध धर्म और इस्लाम की साझी संस्कृति की गवाह रही है। कश्मीर की इसी साझा संस्कृति के अलग-अलग आयामों से रूबरू करा रही हैं चंद्रकांता... कश्मीर विश्व का सुंदरतम प्रदेश है, कल्हण ने 'राजतरंगिणी' में ऐसा लिखा है, लेकिन सिर्फ इसलिए नहीं कि कुदरत ने इसे अपना सर्वस्व अर्पित किया है, बल्कि इसलिए भी कि प्राचीन काल से यह विद्या का भी केंद्र रहा है। कश्मीर को पुरातन काल में ऋषिभूमि या शारदा पीठ भी कहा जाता था। कहते हैं कि पुराने वक्त में जब बच्चे शिक्षा लेना शुरू करते थे तो उन्हें कश्मीर की तरफ मुंह करके बिठाया जाता था और वे श्लोक बोलते थे... नमस्ते शारदे देवि काश्मीरपुरवासिनि। त्वामहं प्रार्थये नित्यं विद्यादानं च देहि मे॥ यानी 'कश्मीर में विराजने वाली मां शारदा, आप हमें विद्या का दान दें।' कश्मीर को सूफियों और संतों का प्रदेश भी कहा गया है। अहम बात यह है कि कश्मीर शैव मत, बौद्ध और इस्लाम की साझा विरासत की भूमि रही है। कह सकते हैं कि कश्मीरियत महज एक अल्फाज़ नहीं, बल्कि एक संस्कृति का नाम है। एक ऐसी संस्कृति जिसमें हिंदू, बौद्ध और इस्लाम की साझा विरासत शामिल है। शायद यही वजह है कि कल्हण ने अपने संस्कृत ग्रंथ 'राजतरंगिणी' में लिखा कि कश्मीर को आध्यात्मिक ताकत से जीता जा सकता है, सैन्य शक्ति से नहीं! 1184 ई. पू. के राजा गोनंद से लेकर राजा विजयसिम्हा (1129 ई.) तक के कश्मीर के प्राचीन राजवंशों का प्रामाणिक इतिहास 'राजतरंगिणी' में है। खूब पनपा बौद्ध धर्म कश्मीर में शुरुआती दौर में बौद्ध धर्म और शैव मत खूब फला-फूला। बौद्ध धर्म की महायान शाखा तो कश्मीर में ही पनपी। 268 ई.पू. से लेकर 232 ई.पू. तक राज करने वाले सम्राट अशोक के दौर में कश्मीर में बौद्ध धर्म का काफी प्रचार-प्रसार हुआ। कल्हण लिखते हैं कि बेशक कश्मीर अशोक की राजधानी पाटलिपुत्र से बहुत दूर था, लेकिन अशोक के शासन के सारे फायदे उसे मिलते थे। उस दौर में कश्मीर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी। सम्राट अशोक के दौर में बौद्ध धर्म को घाटी में खूब प्रश्रय मिला लेकिन बड़ा विस्तार कुषाण वंश के प्रतापी राजा कनिष्क (78 ई. से 144 ई. तक) के समय हुआ। इसी दौरान पहली बार बौद्ध ग्रंथ की भाषा प्राकृत की जगह संस्कृत इस्तेमाल की गई। बौद्ध धर्म को राज्य धर्म घोषित कर दिया गया। श्रीनगर के कुंडलवन विहार में प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान वसुमित्र की अध्यक्षता में चौथे बौद्ध महासम्मेलन का आयोजन किया गया। (फोटो: साभार GettyImages) चीनी यात्री और लेखक ह्वेन त्सांग ने लिखा है कि उस दौर में कश्मीर में वसुमित्र समेत 500 बौद्ध विद्वान थे। दक्षिण भारत के बौद्ध आध्यात्मिक गुरु नागार्जुन कनिष्क के दौर में कश्मीर में ही रहते थे। माना जाता है कि बौद्ध धर्म को सबसे ज्यादा हूणों खासकर मिहिरकुल के वक्त (510-533 ई.) में नुकसान हुआ। वह एक क्रूर राजा थे। मिहिरकुल के बाद आए मेघवाहन ने वापस बौद्ध धर्म को बढ़ावा दिया। उन्होंने न सिर्फ कई बड़े स्तूपों का निर्माण कराया बल्कि सभी जानवरों के वध पर पाबंदी लगा दी। बाद में कश्मीर में कार्कोट राजवंश का शासन हुआ जिसके राजा ललितादित्य मुक्तपीड़ को कश्मीर के सबसे महान राजाओं में माना जाता है। इस दौर में न सिर्फ जनता की आर्थिक स्थिति अच्छी रही, बल्कि उन्होंने कई निर्माण कार्य भी कराए, जिसमें मार्तंड का सूर्य मंदिर प्रमुख है। इसके बाद उत्पल वंश के अवन्तिवर्मन भी बड़े विजेता रहे और उनके शासनकाल में भी मंदिरों आदि का निर्माण बड़े पैमाने पर हुआ। शैव दर्शन का प्रभाव कश्मीर को शैव मत का गढ़ माना गया है। वसुगुप्त ने 9वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में कश्मीरी शैव मत की नींव रखी। इससे पहले यहां बौद्ध और नाथ संप्रदाय ही प्रभावी था। वसुगुप्त के शिष्यों कल्लट और सोमानंद ने शैव दर्शन की नई परंपरा शुरू की। शैव मत के प्रचार-प्रसार में शैवाचार्य अभिनवगुप्त का बड़ा योगदान रहा है, जिन्होंने तंत्रालोक और प्रत्यभिज्ञ दर्शन की रचना की। उस दौर में (10वीं सदी) प्रचलित शंकराचार्य का अद्वैतवाद दर्शन कहता था कि ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या। प्रत्यभिज्ञ दर्शन में कहा गया कि अगर ब्रह्म सत्य है तो जगत भी सत्य है। यह भी कहा कि शिव और शक्ति, दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। शक्ति के बिना शिव अधूरे हैं। उस दौर के प्रमुख शैवाचार्यों अवसुगुप्त, उत्पलदेव, सोमानंद आदि ने शंकराचार्य के अद्वैतवाद दर्शन में संशोधन किया। इस दौर में मम्मट, बिलहण, आनंदवर्धन आदि विद्वानों ने संस्कृत साहित्य खासकर अलंकार शास्त्र में बड़ा योगदान दिया। वैसे, शैव दर्शन और साहित्य को पोषित करने में कश्मीरी पंडितों का बड़ा योगदान रहा है। गुणाढ्य पंडित ने वृहत्कथा की रचना की तो विष्णु शर्मा ने पंचतंत्र की कहानियां इसी सरजमीं पर बैठकर लिखीं। पहली कश्मीरी कवयित्री शैवयोगिनी ललद्यद (ललेश्वरी) भी सामयिक संस्कृति की प्रणेता रहीं। उन्होंने शैव धर्म के प्रचार के लिए काफी काम किया। वह संत कवयित्री थीं। उनका जन्म 1335 के करीब हुआ। उस दौर में बाहर से हमलावर कश्मीर आने शुरू हो गए तो यहां के हिंदू और मुसलमानों में दरार पड़ने लगी लेकिन ललेश्वरी ने दोनों कौमों के बीच प्रेम भाव बनाए रखने में बड़ी भूमिका निभाई। उन्होंने कहा कि शिव सर्वत्र व्याप्त हैं। वह किसी में भेदभाव नहीं करते। फिर तुम क्यों हिंदू और मुसलमानों में भेदभाव करते हो? उनकी तुलना अक्सर संत कबीर से की जाती है। वैसे, कश्मीर में रामभक्ति का विकास कभी भी एक सशक्त संप्रदाय के रूप में नहीं हो पाया। संभवत: इसका कारण यह था कि कश्मीर शताब्दियों तक शैव मत का प्रधान केंद्र रहा। मुस्लिम राजाओं का उदय 14वीं सदी में हिंदू राजाओं का पतन शुरू हो गया। 14वीं सदी में राजा सहदेव के राज में एक बड़ी घटना हुई। मंगोल आक्रमणकारी डुलचू ने कश्मीर पर आक्रमण किया। राजा सहदेव भाग खड़े हुए। मौके का फायदा उठाकर लद्दाख के बौद्ध राजकुमार रिंचन शाह अपने मित्र और सहदेव के सेनापति रामचंद्र की बेटी कोटारानी के सहयोग से कश्मीर की गद्दी पर बैठे। उन्होंने इस्लाम अपना लिया और इस तरह कश्मीर के पहले मुस्लिम शासक बने। इसी दौर में शैवयोगिनी ललेश्वरी ने हिंदू और मुसलमानों के बीच सामंजस्य बनाने के प्रयास किए। आगे जाकर शाहमीर ने कश्मीर की गद्दी पर कब्ज़ा कर लिया और फिर सदियों तक उनके वंशजों ने यहां राज किया। शुरू में ये सुल्तान सहिष्णु रहे, लेकिन सुल्तान सिकंदर के समय (1389 ई.) में इस्लामीकरण चरम पर पहुंच गया। उसी दौर में कश्मीरी पंडितों का पहला बड़ा पलायन हुआ, लेकिन 1417 में जैनुल आबिदीन गद्दी पर बैठे और उन्होंने पिता और भाई की सांप्रदायिक नीतियों को पूरी तरह से बदल दिया। उनका आधी सदी का शासनकाल कश्मीर के इतिहास का सबसे गौरवशाली काल माना जाता है। जनता के हित में किए उनके कामों के कारण ही कश्मीरी इतिहास में उन्हें बड शाह यानी महान शासक कहा जाता है। जैनुल आबिदीन के बाद शाहमीर वंश का पतन शुरू हो गया और इसके बाद चक वंश सत्ता में आया। सन 1589 में मुगल सिपहसालार कासिम खान मीर ने कश्मीर पर मुगलिया सल्तनत का परचम फहराया। अकबर से लेकर शाहजहां का समय कश्मीर में सुख और समृद्धि के साथ-साथ सांप्रदायिक सद्भाव का था लेकिन औरंगजेब और उसके बाद के शासकों ने इस नीति को पलट दिया। मुगल वंश के पतन के साथ ही कश्मीर पर भी उसका नियंत्रण खत्म हो गया और 1753 में अहमद शाह अब्दाली के नेतृत्व में अफगानों ने कश्मीर पर कब्ज़ा कर लिया। अफगानों के अत्याचार की कहानियां आज तक कश्मीर में सुनी जा सकती हैं। लेकिन इस्लाम के दौर में भी बहुत-से सूफी संत थे जो साझा संस्कृति की बात करते थे। समद मीर, शाह गफूर, असर परे जैसे सूफी संतों ने हिंदू और मुस्लिमों के बीच भाईचारे पर जोर दिया। कह सकते हैं कि तमाम उतार-चढ़ाव की गवाह रही कश्मीर की जमीं हमेशा से साझा संस्कृति की समर्थक रही है। कई बड़े पलायन झेले हैं कश्मीरी पंडितों ने वैसे कश्मीर के पंडितों को बड़े उतार-चढ़ाव देखने पड़े। इतिहास गवाह है कि पिछले 700 साल के दौरान कश्मीरी पंडितों के कम-से-कम 7 बार बड़े पलायन हुए। पहला बड़ा पलायन हुआ सुल्तान सिकंदर के समय (14वीं सदी के अंत) में। बुतशिकन कहे जाने वाले सिकंदर ने बड़े पैमाने पर हिंदुओं का संहार किया। उस वक्त कश्मीर में हिंदुओं के सिर्फ 11 परिवार रह गए थे। बाकी को मार डाला गया था या वे भाग चुके थे या जबरन धर्म परिवर्तन करा दिया गया था। बाद में सुल्तान जैनुल आबिदीन ने अपने पिता सिकंदर की गलतियों का प्रायश्चित किया। कहा जाता है कि एक बार उन्हें शरीर में फोड़ा हुआ जो किसी भी तरह ठीक नहीं हो रहा था। तब श्रीभट्ट ने सुल्तान का इलाज किया। बदले में सुल्तान ने श्रीभट्ट से कहा कि जो चाहे मांग लो। श्रीभट्ट ने मांग की कि जिन कश्मीरी पंडितों को भगा दिया गया है, उन्हें वापस कश्मीर लाया जाए। सुल्तान ने ऐसा ही किया। कश्मीरी पंडित फिर से कश्मीर लौट आए। दूसरा बड़ा पलायन पठान काल में हुआ। 17वीं सदी में औरंगजेब ने सभी कश्मीरी पंडितों को जबरन इस्लाम कबूल कराने का आदेश दिया। उस वक्त कश्मीरी पंडितों के प्रतिनिधि थे कृपाराम। वह सिखों के गुरु गुरु तेग बहादुर के आनंदपुर साहिब स्थित दरबार में पहुंचे और उनसे इस परेशानी से निकालने का निवेदन किया। गुरु जी अपने साथ 5 संगियों को लेकर दिल्ली के लिए रवाना हुए। दिल्ली आने पर जब गुरु जी ने मुगल सम्राट औरंगजेब के आदेश पर इस्लाम स्वीकार करने से इनकार कर दिया तो 11 नवंबर 1675 को उन्हें मौत की सजा दी गई। इसके बाद रोक दिया गया। तीसरा बड़ा पलायन हुआ 1947 में, जब पाकिस्तान की ओर से कबायली हमलावरों ने हमला किया। फिर सबसे बड़ा पलायन हुआ जनवरी 1990 में, जब कश्मीरी पंडितों को रातोंरात अपने घर-परिवार छोड़ने पर मजबूर कर दिया गया। (लेखिका ने कश्मीर की धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत पर कई किताबें लिखी हैं।)
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August 17, 2019 at 04:55PM
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